व्रज के रसिकाचार्य (Braj Ke Rasikacharya)
व्रज के भक्त' के नाम से एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया था, जिसमें आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व के व्रज के भक्तों के चरित्र लिखे गये थे । वह ग्रन्थ बहुत लोक-प्रिय हुआ । उसके पश्चात् पाठकों का आपह हुआ कि पिछले पाँच सौ वर्षों के व्रज के बाकी भक्तों के चरित्र भी प्रकाशित किये जायें । बाकी भक्त उस काल के थे, जब व्रज में मधुर-भक्तिरस के प्रचार-प्रसार का कार्य तेजी से चल रहा था । उसमे उनमें-से प्रत्येक ने आचार्यरूप में योगदान किया था । इसलिये 'व्रज के रसिकाचार्य' नाम से इस दूसरे ग्रन्थ की रचना की गयी । दोनों ग्रन्यों की एक श्रृंखला में जोड़कर श्रृंखला का नाम रखा गया-व्रज-भक्तमाल' । 'व्रज के रसिकाचार्य' इस श्रृंखला का प्रथम पुष्प है, 'व्रज के भक्त' इसका दूसरा पुष्प है । 'व्रज के रसिकाचार्य' दो खण्डों में प्रकाशित है । पहले खण्ड में श्रीचैतन्य सम्प्रदाय के रसिकाचार्यों के चरित्र है, दूसरे में अन्य सम्प्रदायों के । 'व्रज के भक्त' का दूसरा संस्करण भी, जो अब 'व्रज-भक्तमाल' का अंग है, इसी के अनुरूप दो खण्डों में प्रकाशित है ।
'व्रज के रसिकाचार्य' के इस द्वितीय खण्ड में चैतन्य सम्प्रदाय के रसिकाचार्यों को छोड़ व्रज के सभी रसिकाचार्यों के चरित्र दिये गये हैं । चैतन्य सम्प्रदाय के रसिकाचार्यों के चरित्र इसके प्रथम खण्ड में प्रकाशित हैं । दोनों खण्डों में विभिन्न सम्प्रदायों कै प्रधान रसिकाचार्यों के चरित्र के साथ उनके सिद्धान्त का विस्तृत विवरण किया गया है 'व्रज की रसोपासना' नाम के एक पृथक् ग्रन्थ में, जो इस समय प्रेस में है । उसमें व्रज की रसोपासना के सामान्य स्वरूप और उसके मूल सिद्धान्तों पर भी प्रकाश डाला गया है ।
लेखक का विश्वास है कि व्रज की रसोपासना की विभिन्न विधाओं में भागवत भेद होते हुए भी उसका एक सामान्य रूप है, जिसके मूल सिद्धान्त व्रज थे सभी सम्प्रदायों को मान्य हैं । इसलिये रसोपासना के साधक यदि अपने सम्प्रदाय के प्रति निष्ठावान् रहते हुए अन्य सम्प्रदायों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखें तो वे उनके रस-सिद्ध आचार्यों के आदर्श चरित्र से अच्छी प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं और उनके ग्रन्यों और वाणियों में संचित बहुमूल्य सामग्री का अपनी साधना में उपयोग कर उसे पुष्ट कर सकते हैं, उसे और अधिक सरस और लाभप्रद बना सकते है ।
इस ग्रन्थ का उद्देश्य है उन्हें सभी सम्प्रदायों के रसिकाचार्यों के चरित्र और उनके सिद्धान्त से परिचित करा उनसे प्रेरणा ग्रहण करने और उनकी रसोपासना के विशाल क्षेत्र से अपनी साधना के लिये उपयोगी सामग्री चयन करने का अवसर प्रदान करना ।
लेखक शिवहरि प्रेस का आभारी है ग्रन्थ के प्रकाशन में उनकी अभिरूचि और तत्परता के लिये । भक्तप्रवर भाई काशीप्रसादजी श्रीवास्तव का भी वह आभारी है इस समूचे ग्रन्थ में उनके स्नेहपूर्ण सहयोग और सुझावों के लिये ।